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Hindi Diwas 2023: पिता नहीं चाहते थे हिंदी पढ़ें, लेकिन पढ़ा तो लिख दिया हिंदी साहित्य का इतिहास (Hindi Sahitya ka Itihaas)

कुछ ऐसी थी आचार्य रामचंद्र शुक्ल की शख्सियत। यह हमारा सौभाग्य है कि उनका जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद के अगौना गांव में हुआ था। हिंदी दिवस पर उन्हें शत-शत नमन है...

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बस्ती (यूपी)। हमारी कलम में इतनी शब्द समृद्धि नहीं है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल (Acharya Ramchandra Shukla) के बारे में कुछ लिख सकूं। लेकिन, जब मन में यह ख्याल आता है कि उनकी जन्मस्थली तो बस्ती जिले (Basti District) का अगौना गांव (Agauna Village) है तो थोड़ा कलम सहज होती है। क्योंकि, अपनों के बारे में अपने कुछ अनाधिकार कह भी दें, तो उसे क्षमा किया जा सकता है। तो आइए हिंदी दिवस पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल (Acharya Ramchandra Shukla) को याद कर निज भाषा की उन्नति के मार्ग को प्रशस्त करने वाले व्यक्तित्व की शाब्दिक यात्रा पर चलते हैं।

चार साल की उम्र में ही बस्ती को छोड़ना पड़ा

हिंदी न सिर्फ हमारी भाषा है, बल्कि यह सामाजिक संस्कार को पूर्ण करने में संस्कृत से किसी मायने में कम नहीं है। कुछ ऐसा ही व्यक्तित्व है आचार्य रामचंद्र शुक्ल का, जिनके बिना हिंदी दिवस (Hindi Diwas) को मनाने की सार्थकता पूर्ण नहीं हो सकती है। आचार्य शुक्ल की उपलब्धियों को गिनाने-बताने वाले तमाम साहित्यकारों के सैकड़ों रचनाएं हैं। लेकिन, उनके जीवन के कुछ ऐसे भी पहलू हैं, जो आज भी युवा वर्ग को सही दिशा देने का संदेश देते हैं।

पिता नहीं चाहते थे हिंदी पढ़ें रामचंद्र शुक्ल

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म सन 1884 में हुआ। जन्म के चार साल हुए ही थे कि वह पिता पंडित चंद्रबली शुक्ल के साथ राठ हमीरपुर चले गए। कुछ साल बाद 1892 में उनके पिता मिर्जापुर में सदर कानूनगो बन गए और रामचंद्र शुक्ल मिर्जापुर आ गए। कहते हैं कि उनके पिता चाहते थे कि वह अंग्रेजी या उर्दू पढ़ें। क्योंकि, वह दौर ब्रिटिश हुकूमत का था। वह चाहते थे कि उनका बेटा अगर उर्दू या अंग्रेजी की पढ़ाई करेगा तो उसे भी जल्द ही कोई सरकारी ओहदा मिल जाएगा। मगर आचार्य शुक्ल की रुचि हिंदी साहित्य के अध्ययन में थी। सो वह पिता की इच्छा के विरुद्ध हिंदी पढ़ते रहे। 

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ऐसे शुरू हुआ हिंदी साहित्य का सफर

आचार्य रामचंद्र शुक्ल में अध्ययनशीलता तो बचपन से ही थी। जब सन 1901 ई. में मिर्जापुर के लंदन मिशन स्कूल से फाइनल परीक्षा (एफए) उत्तीर्ण की तो उनके पिता की इच्छा व्यक्त की कि वह कचहरी में जाकर कुछ सीखें, लेकिन जब उन्होंने उच्च शिक्षा की बात की तो उन्हें वकालत की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद (अब प्रयागराज) भेज दिया। हालांकि, इसमें वह अनुत्तीर्ण हो गए। तब उनके पिता ने उनकी नौकरी लगवाने का प्रयास किया, लेकिन हिंदी में रुचि रखने वाले आचार्य शुक्ल ने इससे इनकार कर दिया। इन सब के बीच साहित्य आदि का अध्ययन जारी रहा। इस दौरान वह मिर्जापुर के पंडित केदारनाथ पाठक, बद्री नारायण चौधरी 'प्रेमघन' के सानिध्य में आए और हिंदी, उर्दू, संस्कृत व अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन-मनन करने लगे। 

काशी को बना लिया अपनी कर्मभूमि

अध्ययन-मनन के दौरान मिर्जापुर के तत्कालीन कलेक्टर ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल को हेड क्लर्क की नौकरी दे दी, लेकिन स्वाभिमानी श्री शुक्ल ने कुछ ही दिनों में उसे छोड़ दिया। इसके बाद वह मिर्जापुर के ही मिशन स्कूल में चित्रकला की शिक्षा देने लगे। 1903 से 1908 तक आनंद कादिम्बनी के सहायक संपादक के तौर पर काम किया। 1909 से 1910 के दौरान वह हिंदी शब्द सागर के संपादन में वैतनिक सहायक के तौर पर काशी आ गए। चूंकि काशी उस समय हिंदी साहित्य का केंद्र बन रहा था तो श्री शुक्ल को भी यहां अपनी प्रतिभा को निखारने का पूरा अवसर मिला। नागिरी प्रचारिणी सभा पत्रिका का भी संपादन करने का उन्हें अवसर मिला। इस बीच उनकी नियुक्ति काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के अध्यापक के रूप में हो गई। बताते हैं कि इस दौरान वह एक महीने के लिए अलवर भी गए, लेकिन फिर काशी लौट आए। 1937 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय  (Kashi Hindu University) में हिंदी के विभागाध्यक्ष (Head of the Department of Hindi) बन गए। दो फरवरी 1941 में हृदय गति रुकने से उनका देहांत हो गया।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की रचनाएं

आलोचनात्मक ग्रंथ: सूर, तुलसी, जायसी पर की गई आलोचनाएं, काव्य में रहस्यवाद, काव्य में अभिव्यंजनावाद, रसमीमांसा।

निबंधात्मक ग्रंथ: निबंध चिंतामणि नामक ग्रंथ के दो भागों में संग्रहीत हैं। इसके अतिरिक्त शुक्ल ने कुछ अन्य निबंध भी लिखे हैं, जिनमें मित्रता, अध्ययन, क्रोध आदि निबंध शामिल हैं।

ऐतिहासिक ग्रंथ: हिंदी साहित्य का इतिहास। 

अनूदित कृतियां: शशांक उनके द्वारा बंगला से अनुवादित उपन्यास है। अंग्रेजी से विश्वप्रपंच, आदर्श जीवन, मेगस्थनीज का भारतवर्षीय वर्णन, कल्पना का आनंद, अर्नाल्ड की पुस्तक लाइट ऑफ एशिया का बुद्ध चरित के नाम से अनुवाद किया।

संपादित कृतियां: संपादित ग्रंथों में हिंदी शब्दसागर, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भ्रमरगीत सार, सूर, तुलसी जायसी ग्रंथावली प्रमुख हैं।

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आचार्य शुक्ल के नाती रामेंद्र त्रिपाठी ने अगौना में बनवाया पुस्तकालय

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की बेटी के पुत्र यानी नाती (दौहित्र) रामेंद्र त्रिपाठी (Ramendra Tripathi) वर्ष 2004 में बस्ती के जिलाधिकारी (DM Basti) के रूप में तैनात हुए। स्थानीय लोग बताते हैं कि उन्होंने ही अपने नाना रामचंद्र शुक्ल के गांव अगौना में पुस्तकालय और वाचनालय का निर्माण कराया। हिंदी साहित्य के प्रेमी आज भी इस गांव में पहुंच कर प्रेरणा लेने पहुंचते हैं। इस गांव को हाल ही सांसद हरीश द्विवेदी ने गोद लिया है। जिससे यहां विकास की उम्मीद बढ़ी है।

दिसंबर 2019 में आए थे परिवार के लोग

स्थानीय लोग बताते हैं कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल के भतीजे कैलाश चंद्र शुक्ल दिसंबर 2019 में परिवार के साथ अगौना आए थे। आचार्य शुक्ल के छोटे भाई जगदीश शुक्ल मिर्जापुर में पूर्ति निरीक्षक के पद पर तैनात थे। कैलाश चंद्र शुक्ल उन्हीं के पुत्र हैं। वह प्रतापगढ़ के पट्टी में रामराज इंटर कालेज से प्रवक्ता पद से सेवानिवृत्त हैं। जिस समय वह यहां आए थे उनकी अवस्था 84 वर्ष थी। उनके साथ बेटे डा. अमृतेश शुक्ल, बहू डॉ. नीतू शुक्ला और दामाद डॉ. राकेश त्रिपाठी भी आए थे। उनका परिवार मौजूदा समय में लखनऊ में रहता है। वह यहां आचार्य रामचंद्र शुक्ल के नाम से संस्थान चलाने वाले ख्यातिप्राप्त शिक्षक डॉ. कृष्णा प्रसाद मिश्र से भी मिले थे।

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